प्रकाश

प्रकाश एक विद्युतचुम्बकीय विकिरण है, जिसकी तरंगदैर्ध्य दृश्य सीमा के भीतर होती है। तकनीकी या वैज्ञानिक संदर्भ में किसी भी तरंगदैर्घ्य के विकिरण को प्रकाश कहते हैं। प्रकाश का मूल कण फ़ोटान होता है। प्रकाश की तीन प्रमुख विमायें निम्नवत है।

प्रकाशिकी

दर्पणो से प्रकाश के परिवर्तन प्रकाशिकी का विषय है। प्रकाश का अध्ययन भी दो खंडों में किया जाता है। पहला खंड, ज्यामितीय प्रकाशिकी, प्रकाश किरण की संकल्पना पर आधृत है। दर्पणों से प्रकाश का परार्वतन और लेंसों तथा प्रिज्मों से प्रकाश का अपवर्तन, ज्यामितीय प्रकाशिकी के विषय है। सूक्ष्मदर्शी, दूरदर्शी, फोटोग्राफी कैमरा तथा अन्य उपयोगी प्रकाशिकी यंत्रों की क्रियाविधि ज्यामितीय प्रकाशिकी के नियमों पर ही आधृत है।

प्रकाशिकी का दूसरा खंड भौतिक प्रकाशिकी है। इसमें प्रकाश की मूल प्रकृति तथा प्रकाश और द्रव्य की पारस्परिक क्रिया का अध्ययन किया जाता है। प्रकाश सूक्ष्म कणों का संचार है, ऐसा मानकर न्यूटन ने ज्यामितीय प्रकाशिकी के मुख्य परिणामों की व्याख्या की। पर 19वीं शताब्दी में प्रकाश के व्यतिकरण की घटनाओं का आविष्कार हुआ। इन क्रियाओं की व्याख्या कणिका सिद्धांत से संभव नहीं है, अत: बाध्य होकर यह मानना पड़ा कि प्रकाश तरंगसंचार ही है। ऊपर वर्णित मैक्सवेल के विद्युतचुंबकीय सिद्धांत ने प्रकाश के तरंग सिद्धांत को ठोस आधार दिया।

भौतिक प्रकाशिकी का एक महत्वपूर्ण भाग [[स्पेक्ट्रामिकी (Spectroscopy) है। इसमें प्रकाश तरंगों के स्पेक्ट्रम का अध्ययन किया जाता है। अणु परमाणुओं की रचना को समझने में इस प्रकार के अध्ययन का प्रमुख योगदान रहा है। विज्ञान की यह शाखा तारा भौतिकी की आधारशिला है।

ज्यामितीय प्रकाशिकी

प्रकाशिकी ज्यामितीय (Geometrical Optics) प्रकाशिकी का वह भाग है जो प्रकाश को 'किरण' जैसा मानकर उसकी गति का अध्ययन किया जाता है। इसलिये इसे 'किरण प्रकाशिकी' (ray optics) भी कहते हैं। किरण प्रकाशिकी की मान्यता के अनुसार जब तक समांगी माध्यम में प्रकाश गति करता है तब तक उसका मार्ग सीधी रेखा में होता है। जहाँ पर दो माध्यम मिलते हैं, वहाँ प्रकाश किरणे मुड़ जाती हैं (किरणे दो भागों में बंट भी सकतीं हैं।)

वस्तुतः प्रकाशिकी का बड़ी सीमा तक सरलीकरण ही ज्यामितीय प्रकाशिकी है। ज्यामितीय प्रकाशिकी के अन्तर्गत प्रकाश के विवर्तन और व्यतिकरण की कोई व्याख्या नहीं दी जा सकती। किन्तु ज्यामितीय प्रकाशिकी छबियों के निर्माण एवं प्रकाशिक विपथम (optical aberrations) आदि की व्याख्या करने में सक्षम है। दूसरे शब्दों में, ज्यामितीय प्रकाशिकी के द्वारा परिणाम तब तक शुद्ध आते हैं जब तक वस्तुओं का आकार प्रकाश के तरंगदैर्घ्य की तुलना में काफी बड़ा हो। read more...

उष्मागतिकी

भौतिकी में उष्मागतिकी (उष्मा+गतिकी = उष्मा की गति संबंधी) के अन्तर्गत ऊर्जा का कार्य और उष्मा में रूपांतरण, तथा इसका तापमान और दाब जैसे स्थूल चरों से संबंध का अध्ययन किया जाता है। इसमें ताप, दाब तथा आयतन का सम्बन्ध भी समझा जाता है।

कृष्णिका

भौतिक विज्ञान में कृष्णिका पदार्थ की एक आदर्शीकृत अवस्था है, जो अपने ऊपर पड़ने वाले सभी विद्युत चुम्बकीय विकिरण अवशोषित कर लेता है। कृष्णिका एक विशेष और सतत वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) में विकिरण को अवशोषित और गर्म होने पर फिर से उत्सर्जित ‍करते हैं। क्योंकि कोई भी प्रकाश (दृश्य विद्युत चुम्बकीय विकिरण) परिलक्षित या संचरित नहीं होता है और वस्तु जब ठंडी होती है, तो काली दिखाई देती है। हालांकि एक कृष्णिका तापमान पर निर्भर प्रकाश वर्णक्रम का उत्सर्जन करता है। कृष्णिका से निकले इस सौर विकिरण को कृष्णिका विकिरण कहा जाता है। कृष्णिका के वर्णक्रम में तरंग की लंबाई (तरंगदैर्घ्य) जितनी छोटी होती है, आवृत्ति उतनी ही ज्यादा होती है और उच्च आवृत्ति उच्च तापमान से संबंधित होती है। इस प्रकार, एक गर्म वस्तु का रंग वर्णक्रम के नीले अंत के करीब होता है और एक ठंडी वस्तु का रंग लाल के करीब होता है।

कमरे के तापमान पर, कृष्णिका ज्यादातर अवरक्त (इंफ्रारेड) तरंगदैर्घ्य फेंकते हैं, लेकिन तापमान के कुछ सौ डिग्री सेल्सियस बढ़ जाने पर कृष्णिका दृश्य तरंगदैर्घ्य उत्सर्जित करते हैं, जो तापमान बढ़ने के साथ ही लाल, नारंगी, पीले, उजले, नीले दिखते हैं। वस्तु के सफेद होने तक वह पर्याप्त मात्रा में पराबैंगनी विकिरण उत्सर्जित करती है।

"कृष्णिका" शब्द 1860 मेंगुस्ताव किर्चाफ के द्वारा शुरू किया गया। जब इसका यौगिक विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाता है, तो यह शब्द आम तौर पर "कृष्णिका विकिरण" या " ब्लैकबॉडी रेडियेशन" के रूप में एक शब्द में संयुक्त हो जाता है।

कृष्णिका उत्सर्जन एक निरंतर जारी रहने वाले क्षेत्र के सौर संतुलनस्थिति की अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। शास्त्रीय भौतिकी में सौर संतुलन में प्रत्येक अलग-अलग फूरियर मोड में समान ऊर्जा होनी चाहिए। इस दृष्टिकोण से एक विरोधाभास पैदा हुआ, जिसे पराबैंगनी आपदा के रूप में जाना जाता है और जिसमें सतत जारी रहने वाले क्षेत्र में ऊर्जा की एक अपार मात्रा होती है। कृष्णिका सौर संतुलन के गुणों का परीक्षण कर सकते हैं, क्योंकि वे जो सूर्य की किरणों द्वारा वितरित किये जाने वाले विकिरण उत्सर्जित करते हैं। ऐतिहासिक रूप से कृष्णिका के नियमों का अध्ययन करने से ही क्वांटम यांत्रिकी की अवधारणा आई।

व्यतिकरण

प्रकाश की गित तरंगीय होती है। किसी एकल प्रकाशस्रोत से नि:सृत ऊर्जा माध्यम के पार्श्व में सान रूप से बिखर जाती है। यदि प्रकाश के दो स्वतंत्र स्रोत, जिनसे समान परिमाण और अभिन्न कला की तरंगें सतत नि:सृत हों, एक दूसरे के सन्निकट रखे जाएँ, तो माध्यम के आसपास ऊर्जा का वितरण समांग नहीं होता, जहाँ एक प्रकाशतरंग का शृंग दूसरे प्रकाशतरंग के शृंग (crest) पर, या एक का तरंगगर्त (trough) दूसरे के तरंगगर्त पर गिरता है, वहाँ आयाम (amplitude) बढ़ जाता है और आयाम स्वरूप ऊर्जा या प्रकाश की तीव्रता भी बढ़ जाती है। साथ ही, यदि एक का तरंगश्रृंग दूसरे के तरंगगर्त पर गिरे, तो परिणामी आयाम (resultant amplitude) शून्य होता है और प्रकाश की तीव्रता घट जाती है। पहली स्थिति का संपोषी (constructive) व्यतिकरण और दूसरी स्थिति को विनाशी (destructive) व्यतिकरण कहते हैं।



व्यतिकरण के लिये शर्तें


व्यतिकरण के लिए कुछ मौलिक शर्ते हैं जिनकी पूर्ति आवश्यक है। इनमें से कुछ तो प्रकाश की प्रकृति में ही अंतर्निहित है और दूसरी, यदि परिणाम का प्रेक्षण प्रयोग द्वारा करना हुआ तो, आवश्यक हो उठती है। सरलता के लिए हम दो विद्युत् चुंबकीय लहरों पर विचार कर सकते हैं, जो किसी दिक्बिंदु पर, जहाँ से दोनों लहरें गुजरती हैं, विनाशी व्यतिकरण उत्पन्न करें।

यदि व्यतिकरण का प्रतिरूप स्थिर (steady) रहा, अर्थात् यदि प्रकाश की तीव्रता (intensity) का परिणामी तथाकथित बिंदु पर समय के प्रत्येक मान के लिए शून्य हो, तो निम्नलिखित शर्तों की पूर्ति आवश्यक है :

प्रकाश द्वारा उत्पन्न प्रतिरूपों के सफल प्रेक्षण के लिए दो अन्य शर्तें, जिनकी पूर्ति होनी चाहिए, निम्नलिखित हैं

यदि दो अतिसन्निकट प्रकाशस्रोत के समान परिमाण और कालांतर (period) की तरगें किसी कलांतर विशेष पर कुछ दूर स्थित पर्दे के एक बिंदु पर मिलें, तो पर्दे पर कुछ बिल्कुल की रेखाएँ जिनके अंतराल में अधिकतम तीव्रता की रेखाएँ रहती हैं, देखी जाती हैं। वे न्यूनतम और अधिकतम तीव्रता की रेखाएँ व्यतिकरण फ्रिंजें कहलाती हैं।

जब कभी व्यतिकरण फ्रिंजें (fringes) पतली फिल्मों के चलते बनती हैं, तब उनका कारण व्यतिकरण में भाग लेनेवाली किरणों के कलांतर का परिवर्तन होता है। यह परिवर्तन फिल्म (film) की मोटाई के परिवर्तन, या आयतन कोण के परिवर्तन, के कारण होता है। यदि मोटाई समांग नहीं हुई, तो प्राय: दोनों तथ्य एक ही साथ क्रियाशील हो उठते हैं; लेकिन एक बात स्पष्ट है कि जब कोई फिल्म आँख द्वारा देखी जा रही है, तो उसे आँख से करीब 25 सेंमी. की दूरी पर रखा जाना चाहिए।

यदि फिल्म का परास (range) बहुत बड़ा न हो, तो हमारी आँखों तक फिल्म के विभिन्न बिंदुओं से आती हुई किरणों के झुकाव की भिन्नता कोई अधिक नहीं होती और प्रत्येक किरण का आयतन कोण करीब करीब समान होता है। अत: फ्रिंजें मुख्यत: फिल्म की मोटाई की भिन्नता के कारण बनती है। यह भी नितांत स्पष्ट है कि फिल्म के उन सभी बिंदुओं पर, जहाँ मोटाई समान है, वहाँ प्रकाश की दीप्ति भी समान होगी। यदि ऐसा कोई भी बिंदु काला या उज्वल हुआ, तो शेष भी तदनुरूप काले या उज्वल होंगे। इसलिए काली या उज्वल पट्टियाँ समान मोटाई के फिल्म के विभिन्न बिंदुओं के बिंदुपथ (loci) मात्र होती है। इस तरह की फिं्रजें न्यूटनी वलय (Newtons rings) कहलाती हैं, क्योंकि न्यूटन ने सर्वप्रथम इनका अध्ययन किया था।